एक नई प्रारंभिक स्टडी में पाया गया कि दिल का दौरा झेल चुके और विटामिन डी का स्तर सामान्य सीमा तक बनाए रखने वाले मरीजों में, दोबारा हार्ट अटैक होने का खतरा 50% से अधिक कम हो गया

यह अध्ययन अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के “साइंटिफिक सेशंस 2025” में प्रस्तुत किया गया, जो 7 से 10 नवम्बर तक न्यू ऑरलियन्स में आयोजित हुआ। यह सम्मेलन हृदय विज्ञान (कार्डियोवेस्कुलर साइंस) के क्षेत्र में नए वैज्ञानिक खोजों, अनुसंधान और क्लिनिकल प्रैक्टिस से जुड़े ताज़ा अपडेट साझा करने वाला विश्व का एक प्रमुख मंच है।

पिछले अध्ययनों में पाया गया है कि शरीर में विटामिन डी का कम स्तर हृदय स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है

“टार्गेट-डी” नामक इस रैंडमाइज़्ड क्लिनिकल ट्रायल में दिल की बीमारी से पीड़ित और पहले दिल का दौरा झेल चुके लोगों को शामिल किया गया था। इसका उद्देश्य यह जानना था कि अगर शरीर में विटामिन डी का स्तर सामान्य सीमा तक बनाए रखा जाए, तो क्या इससे भविष्य में हार्ट अटैक, स्ट्रोक, हार्ट फेल्योर के कारण अस्पताल में भर्ती होने या मृत्यु के खतरे को कम किया जा सकता है

अध्ययन में शामिल 85% से अधिक प्रतिभागियों के रक्त में विटामिन डी का स्तर 40 ng/mL से कम था, जिसे कई विशेषज्ञ स्वास्थ्य के लिए अपर्याप्त मानते हैं। पहले हुए विटामिन डी से जुड़े ट्रायल्स में जहाँ समान खुराकें (standard doses) दी जाती थीं, वहीं “टार्गेट-डी” ट्रायल में हर व्यक्ति के ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट देखकर डॉक्टरों ने विटामिन डी की खुराक तय की।

टार्गेट-डी ट्रायल की प्रमुख शोधकर्ता और इंटरमाउंटेन हेल्थ (सॉल्ट लेक सिटी, यूटा) की एपिडेमियोलॉजिस्ट और रिसर्च प्रोफेसर डॉ. हाइडी टी. मे (Heidi T. May, Ph.D., M.S.P.H., FAHA) ने बताया — “पहले हुए क्लिनिकल ट्रायल्स में सभी प्रतिभागियों को एक जैसी मात्रा में विटामिन डी दी गई थी, बिना यह जांचे कि उनके रक्त में पहले से विटामिन डी का स्तर कितना है।

हमने इस बार थोड़ा अलग तरीका अपनाया। हमने हर प्रतिभागी के शामिल होने के समय और पूरे अध्ययन के दौरान उनके विटामिन डी स्तर की जांच की, और ज़रूरत के अनुसार उनकी खुराक में बदलाव किया, ताकि उनका स्तर 40 से 80 ng/mL की सीमा में बना रहे।”

टार्गेट-डी अध्ययन में लोगों को दो हिस्सों में बाँटा गया था — पहले हिस्से में वे लोग थे जिन्हें विटामिन डी से जुड़ा कोई खास इलाज नहीं दिया गयादूसरे हिस्से में वे लोग थे जिन्हें उनके शरीर की ज़रूरत के हिसाब से विटामिन डी की खुराक दी गई। हर तीन महीने में उनका ब्लड टेस्ट किया गया ताकि देखा जा सके कि विटामिन डी का स्तर 40 ng/mL से ऊपर है या नहीं। अगर स्तर कम पाया गया, तो खुराक में बदलाव किया गया जब तक कि वह 40 ng/mL से ज़्यादा न हो जाए।

जब किसी व्यक्ति का स्तर 40 ng/mL से ऊपर बना रहा, तो साल में एक बार जांच की गई, और अगर स्तर फिर से कम हुआ, तो खुराक को दोबारा बदला गया।शोधकर्ताओं ने पूरे अध्ययन के दौरान विटामिन डी लेने वाले लोगों के विटामिन डी और कैल्शियम की मात्रा पर नज़र रखी, ताकि यह ज़रूरत से ज़्यादा न बढ़े। अगर किसी व्यक्ति का स्तर 80 ng/mL से ऊपर गया, तो दवा की मात्रा घटा दी गई या कुछ समय के लिए रोक दी गई।

शोधकर्ताओं ने बताया कि विटामिन डी की बहुत अधिक मात्रा से शरीर में कैल्शियम बढ़ सकता है,जिसे हाइपरकैल्सेमिया कहा जाता है। ऐसी स्थिति में गुर्दों को नुकसान, और दिल की धड़कन में गड़बड़ी जैसी दिक्कतें हो सकती हैं। अध्ययन का मुख्य उद्देश्य यह जानना था कि क्या शरीर में विटामिन डी का सही स्तर बनाए रखने से दिल की बीमारी वाले लोगों में गंभीर घटनाओं — जैसे हार्ट अटैक, हार्ट फेलियर, स्ट्रोक या मृत्यु — के खतरे को कम किया जा सकता है या नहीं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि विटामिन डी की ज़रूरत के हिसाब से दी गई खुराक से मृत्यु, हार्ट फेलियर या स्ट्रोक जैसी स्थितियों में बड़ा फर्क नहीं आया, लेकिन यह हार्ट अटैक को रोकने में कुछ हद तक मददगार साबित हुई।

डॉ. हाइडी टी. मे का कहना है कि इन नतीजों से मरीजों की देखभाल बेहतर की जा सकती है, क्योंकि इससे विटामिन डी की जांच और सही मात्रा तय करने पर ज़ोर दिया जा सकता है। उन्होंने कहा, “हम दिल की बीमारी से जूझ रहे लोगों को सलाह देते हैं कि वे अपने डॉक्टर से विटामिन डी की जांच और ज़रूरत के अनुसार सही मात्रा के बारे में बात करें, ताकि उनकी सेहत का बेहतर ध्यान रखा जा सके।”

डॉ. मे और उनकी टीम ने यह भी बताया कि भविष्य में और शोध की ज़रूरत है, ताकि यह समझा जा सके कि क्या विटामिन डी का सही इलाज पहली बार दिल की बीमारी होने से पहले ही खतरे को कम कर सकता है। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन ने सलाह दी है कि किसी भी नए सप्लीमेंट या विटामिन को शुरू करने से पहले दिल की बीमारी वाले लोग अपने हार्ट डॉक्टर से ज़रूर सलाह लें।

शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन की कुछ सीमाएँ भी बताईं — इसमें सिर्फ दिल की बीमारी वाले लोगों को शामिल किया गया था, इसलिए इसके नतीजे उन पर लागू नहीं हो सकते जिनको दिल की बीमारी नहीं है। इसके अलावा, शामिल लोगों की संख्या कम थी, इससे दूसरी बीमारियों या परिणामों को गहराई से नहीं समझा जा सका। ज्यादातर प्रतिभागी एक ही समुदाय (करीब 90% व्हाइट) के थे, इसलिए आगे और शोध करना ज़रूरी है ताकि पता चल सके कि ये नतीजे हर तरह के लोगों पर लागू होते हैं या नहीं।

Stuti Tiwari
Stuti Tiwari

Stuti Tiwari joined Medical Dialogues in 2025 as a Hindi Content Writing Intern. She is currently pursuing a Bachelor’s degree in Journalism from the University of Delhi. With a strong interest in health journalism, digital media, and storytelling, Stuti focuses on writing, editing, and curating Hindi health content. She works on producing informative, engaging, and accurate articles to make healthcare news and updates more understandable and relatable for Hindi-speaking audiences.