सब कुछ पाने की दौड़ में थक गए हम: युवाओं में बढ़ रहा है तनाव, चिंता और बर्नआउट: भक्ति जोशी

Update: 2025-11-15 07:00 GMT

जब महामारी ने लोगों की ज़िंदगी और काम करने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया, तब इसका गहरा असर उनकी मानसिक सेहत पर भी पड़ा। कोविड-19 के बाद से कामकाजी युवाओं, खासकर मिलेनियल्स और जेन-ज़ी में थकान (बर्नआउट), चिंता (एंग्ज़ायटी) और लगातार बढ़ते दबाव के मामले बहुत बढ़े हैं

शुरुआत में घर से काम करना कई लोगों के लिए बहुत राहत भरा लगा — आने-जाने का समय बच गया, काम के घंटे लचीले हो गए, और परिवार के साथ ज़्यादा वक्त मिलने लगा। लेकिन धीरे-धीरे घर और ऑफिस के बीच की सीमाएँ मिटने लगीं। डेडलाइन आधी रात तक बढ़ गईं, ऑफिस के मैसेज और कॉल्स ऑफिस टाइम के बाद भी आने लगे। “ऑन” और “ऑफ” मोड के बीच की लाइन गायब हो गई। जो चीज़ सुविधा लगती थी, वही थकावट में बदल गई।

2020 के बाद से मानसिक स्वास्थ्य परामर्श लेने वाले युवाओं की संख्या बहुत बढ़ी है। करियर में आगे बढ़ने की इच्छा और जीवन के संतुलन के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है। जो सफलता कभी गर्व की बात थी, अब वही तनाव और भावनात्मक थकान का कारण बन गई है।

आज के समय में काम से जुड़ा तनाव युवाओं की सबसे बड़ी समस्या है। पुरुषों पर कमाने और ज़िम्मेदार साबित होने का दबाव है, जबकि महिलाओं को उनके रूप-रंग और रिश्तों के आधार पर आंका जाता है। सोशल मीडिया पर हर दिन तुलना, दिखावा और असंतोष का नया दौर शुरू हो जाता है — जो दबाव को और बढ़ा देता है.

लगातार बढ़ते तनाव का असर दोस्ती और रिश्तों पर भी दिखने लगता है। डिजिटल दुनिया में आर्थिक तनाव, असुरक्षा और अपने अपनी बॉडी इमेज को लेकर कॉन्फिडेंस की कमी और बढ़ जाती है।लोग करियर, रिश्तों और जीवनशैली में “सबसे बेहतर” बने रहने की दौड़ में खुद को थका रहे हैं

अब काम और निजी जीवन का संतुलन एक सपना बन गया है। कामकाजी लोग अब पूरी तरह डिस्कनेक्ट नहीं हो पाते — रात के खाने के वक्त मैसेज का जवाब देना, सोने से पहले ईमेल देखना, और आराम करने पर अपराधबोध महसूस करना आम बात हो गई है। लंबे समय तक ऐसा करने से शरीर और मन दोनों थक जाते हैं, और व्यक्ति “ऑटो-पायलट मोड” में जीने लगता है।

अब लोग समझने लगे हैं कि मानसिक सेहत उतनी ही ज़रूरी है जितनी शारीरिक। अब थेरेपी के बारे में बात करना, सीमाएँ तय करना और आराम करना सामान्य हो गया है। कंपनियाँ भी समझ रही हैं कि कर्मचारियों की उत्पादकता उनकी मानसिक सेहत पर निर्भर करती है।

यह पीढ़ी आलसी नहीं है, बल्कि थकी हुई है। सालों से भागते-भागते, सब कुछ ठीक दिखाने की कोशिश में थक चुकी है। लेकिन अब यह पीढ़ी समझ चुकी है कि इस तेज़ रफ़्तार दुनिया में थोड़ा रुकना, आराम करना और साँस लेना हार नहीं, बल्कि अपने आप को बचाने का तरीका है।

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