बचपन का दबाव बच्चों की मानसिक सेहत को तोड़ रहा, 90% को इलाज नहीं मिलता: AIIMS विशेषज्ञ प्रो. राजेश सागर की चेतावनी

नई दिल्ली: देश में बच्चों और किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ जिस तेज़ी से बढ़ रही हैं, उसे लेकर एम्स दिल्ली के मनोचिकित्सा विभाग ने गंभीर चेतावनी जारी की है। विशेषज्ञों का कहना है कि आज का बचपन पहले जैसा नहीं रहा—परिवार, पढ़ाई और समाज में आए बड़े बदलावों ने बच्चों का भावनात्मक सहारा कमजोर कर दिया है।
एम्स दिल्ली के प्रोफेसर डॉ. राजेश सागर बताते हैं, “बच्चे पहले भी थे, लेकिन आज जागरूकता ज्यादा है। साथ ही समाज में कई चीजें बदल गई हैं। परिवार छोटे हो गए हैं, पढ़ाई का दबाव बढ़ा है और मोबाइल का उपयोग बहुत बढ़ गया है। इन वजहों से बच्चों का भावनात्मक सहारा कमजोर हुआ है। सोशल मीडिया और स्क्रीन टाइम की बढ़ती आदतें, दोस्तों से दूरी और अकेलापन बच्चों को मानसिक रूप से अधिक संवेदनशील बना रहे हैं। हमें अब समय रहते कदम उठाने होंगे। पिछले 25 सालों में मानसिक रोगों से होने वाला बोझ दोगुना हो चुका है।"
उनके मुताबिक, Lancet Psychiatry में 2020 में प्रकाशित एक बड़े अध्ययन ने साफ दिखाया कि 1990 से 2017 के बीच मानसिक स्वास्थ्य का बोझ दोगुना हुआ। पोस्ट-कोविड यह समस्या और बढ़ गई है।
क्यों बढ़ रही हैं मानसिक परेशानियाँ?
विशेषज्ञों के अनुसार 1 से 14 वर्ष की उम्र सबसे संवेदनशील होती है। इसी दौरान मानसिक बीमारियों की शुरुआती नींव पड़ती है, लेकिन अधिकतर लक्षण समय पर पहचाने ही नहीं जाते।
बच्चों पर असर डालने वाले मुख्य कारण:
- पढ़ाई और परीक्षाओं का अत्यधिक दबाव
- मोबाइल और स्क्रीन का जरूरत से ज्यादा उपयोग
- न्यूक्लियर फैमिली में भावनात्मक सहारा कम होना
- दोस्तों से दूरी, सोशल आइसोलेशन
- स्कूल में प्रतिस्पर्धा और बुलिंग
- गृह-कलह, ट्रॉमा या कड़वा व्यवहार
सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि देश में 90% बच्चे मानसिक बीमारी का इलाज करवाते ही नहीं हैं।
बच्चों में बढ़ रही आत्महत्या की घटनाएँ
डॉ. सागर बताते हैं कि छोटी उम्र में आत्महत्या के मामले बढ़ना बेहद गंभीर संकेत हैं।
कारण हैं:
- असफलता का डर
- घर या स्कूल का दबाव
- सोशल मीडिया का प्रभाव
- नींद और दिनचर्या का बिगड़ना
- किसी से बात न कर पाना
बचपन का आघात—आधी मानसिक बीमारियों की जड़
अध्ययन बताते हैं कि लगभग 50% मानसिक रोगों की शुरुआत बचपन के तनाव या दुर्व्यवहार से होती है, जिनमें शामिल हैं:
- अनदेखी या भावनात्मक उपेक्षा
- कठोर अनुशासन या घरेलू हिंसा
- स्कूल में बुलिंग
- किसी घटना का ट्रॉमा
ये अनुभव बच्चे के दिमाग और व्यवहार दोनों पर गहरा असर डालते हैं।
क्या किया जाए? विशेषज्ञों के सुझाव
- स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य काउंसलिंग अनिवार्य हो
- माता-पिता बच्चे से खुलकर बातचीत करें
- मोबाइल का समय सीमित करें
- बाहर खेलने और गतिविधियों को बढ़ावा दें
- चिड़चिड़ापन, अकेलापन, पढ़ाई में गिरावट—इनको हल्का न समझें
- समय पर मनोचिकित्सक या विशेषज्ञ से सलाह लें
निष्कर्ष
आज का बच्चा तेज़ी से बदलती दुनिया का दबाव अकेले झेल रहा है। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर परिवार, स्कूल और समाज सभी को मिलकर कदम उठाने होंगे।
अगर समस्याएँ समय पर पहचानी जाएँ, तो बच्चों को तनाव, अवसाद और चिंता से सुरक्षित रखा जा सकता है।


