भारत में नवजात शिशु में पीलिया (Neonatal Jaundice) एक बेहद आम स्थिति है और हर साल लाखों माता-पिता इससे रू-बरू होते हैं। बच्चे की त्वचा या आँखों में पीला रंग दिखते ही परिवार में घबराहट होना स्वाभाविक है, लेकिन भारतीय बाल रोग विशेषज्ञों के अनुसार अधिकतर मामलों में यह सामान्य, अस्थायी और पूरी तरह इलाज योग्य होता है।

मेडिकल अध्ययनों के मुताबिक, भारत में लगभग 60% पूर्ण अवधि में जन्मे शिशु और करीब 80% समय से पहले जन्मे बच्चे जन्म के पहले सप्ताह में किसी न किसी स्तर का पीलिया विकसित करते हैं। सही जानकारी, समय पर जाँच और उचित देखभाल से इसे सुरक्षित रूप से नियंत्रित किया जा सकता है।

पीलिया तब होता है जब नवजात के शरीर में बिलीरुबिन नामक पीला पदार्थ बढ़ जाता है। यह लाल रक्त कोशिकाओं (RBC) के टूटने पर बनता है। वयस्कों में लिवर इसे आसानी से प्रोसेस कर देता है, लेकिन नवजात शिशु का लिवर अभी पूरी तरह विकसित नहीं होता।

भारतीय परिस्थितियों में, जहाँ कई बार माँ और बच्चे को जन्म के तुरंत बाद पर्याप्त पोस्ट-नेटल निगरानी नहीं मिल पाती, यह समस्या ज्यादा देखने को मिलती है। इसका असर सबसे पहले बच्चे की त्वचा और आँखों की सफ़ेदी के पीलेपन के रूप में दिखाई देता है। अधिकांश मामलों में यह फिज़ियोलॉजिकल जॉन्डिस होता है, जो 1 से 2 हफ्तों में अपने-आप ठीक हो जाता है।

हालाँकि, कुछ स्थितियों में नवजात पीलिया गंभीर रूप भी ले सकता है। अगर बिलीरुबिन का स्तर बहुत ज़्यादा बढ़ जाए और समय पर इलाज न मिले, तो यह मस्तिष्क को नुकसान पहुँचाने वाली स्थिति कर्निक्टेरस का कारण बन सकता है।

भारत में यह जोखिम खासतौर पर प्रीमैच्योर शिशुओं, कम वज़न वाले बच्चों और ग्रामीण या संसाधन-सीमित क्षेत्रों में अधिक देखा जाता है। इसी कारण सरकारी और निजी अस्पतालों में अब जन्म के बाद पहले 48–72 घंटों के भीतर शिशु की नियमित जाँच और बिलीरुबिन स्तर की निगरानी पर ज़ोर दिया जा रहा है।

भारत में नवजात पीलिया के सामान्य कारण:

  • लिवर की अपरिपक्वता — नवजात का लिवर बिलीरुबिन को प्रोसेस करने में समय लेता है।
  • ब्रेस्टफीडिंग जॉन्डिस — शुरुआती दिनों में माँ का दूध कम आने से शिशु को पर्याप्त फीड न मिलना।
  • ब्लड ग्रुप या Rh असंगति — भारत में O और Rh-नेगेटिव माताओं में यह कारण अपेक्षाकृत आम है।
  • समय से पहले जन्म और कम जन्म-वजन — प्रीमैच्योर शिशुओं में जोखिम अधिक रहता है।
  • संक्रमण या लिवर से जुड़ी बीमारी — कुछ मामलों में पीलिया किसी गंभीर समस्या का संकेत भी हो सकता है।

आमतौर पर पीलिया के लक्षण जन्म के 2–3 दिन बाद दिखाई देते हैं। सबसे पहले चेहरे और आँखों में पीलापन दिखता है, जो धीरे-धीरे छाती, पेट और पैरों तक फैल सकता है। कई भारतीय परिवारों में पीलिया को “धूप दिखाने” या घरेलू उपायों से ठीक करने की कोशिश की जाती है, लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि बिना डॉक्टर की सलाह के ऐसे उपाय जोखिम भरे हो सकते हैं।

अस्पतालों में डॉक्टर त्वचा परीक्षण, रक्त जाँच और ट्रांसक्यूटेनियस बिलीरुबिन मीटर की मदद से स्थिति का सही आकलन करते हैं। आँकड़े बताते हैं कि समय पर पहचान से 95 प्रतिशत से अधिक मामलों में जटिलताओं को रोका जा सकता है।

इलाज और देखभाल के तरीके :

  • फोटथेरेपी — सरकारी और निजी दोनों अस्पतालों में उपलब्ध नीली रोशनी से इलाज।
  • बार-बार स्तनपान — WHO और भारत सरकार दोनों ही माँ के दूध को सबसे प्रभावी उपाय मानते हैं।
  • ब्लड ट्रांसफ्यूज़न (बहुत कम मामलों में) — गंभीर स्थिति में विशेषज्ञों की निगरानी में।
  • नियमित फॉलो-अप — डिस्चार्ज के बाद भी डॉक्टर की सलाह अनुसार जाँच बेहद ज़रूरी।

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में माता-पिता और परिवार की जागरूकता नवजात की सेहत में अहम भूमिका निभाती है। अगर बच्चे का पीलापन बढ़ता जाए, वह बहुत ज़्यादा सुस्त हो, दूध ठीक से न पी रहा हो या पेशाब-मल कम हो, तो तुरंत नज़दीकी सरकारी अस्पताल या बाल रोग विशेषज्ञ से संपर्क करना चाहिए।

अच्छी बात यह है कि भारत में अधिकतर नवजात शिशुओं में पीलिया स्थायी नुकसान नहीं करता और सही समय पर इलाज से पूरी तरह ठीक हो जाता है। डॉक्टरों के अनुसार, घबराने की बजाय सही जानकारी, मेडिकल सलाह और नियमित निगरानी ही नवजात पीलिया से सुरक्षित निपटने का सबसे बेहतर तरीका है।

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नवजात शिशु में पीलिया आम है। सही जानकारी, समय पर जांच और इलाज से बच्चे को सुरक्षित रखा जा सकता है।
Khushi Chittoria
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Khushi Chittoria joined Medical Dialogues in 2025 as a Media and Editorial Intern. She holds a degree in Bachelor of Arts in Journalism and Mass Communication from IP University and has completed certifications in content writing. She has a strong interest in anchoring, content writing, and editing. At Medical Dialogues, Khushi works in the editorial department, web stories and anchoring.