स्कूल के बच्चों में नशे का बढ़ता खतरा: 12 साल में ही शुरू हो रहा है सेवन

देश-भर में किए गए एक बड़े सर्वे में सामने आया है कि भारत के स्कूल-going बच्चों में नशे की शुरुआत बेहद कम उम्र, लगभग 12 साल, में ही होने लगी है। कुछ मामलों में बच्चे 11 साल की उम्र में ही तंबाकू, शराब या अन्य पदार्थों का प्रयोग कर रहे हैं। यह अध्ययन AIIMS और अन्य संस्थानों द्वारा 10 प्रमुख शहरों—दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद आदि—में किया गया।
सर्वे में कुल 5,920 छात्रों (कक्षा 8 से 12) को शामिल किया गया। इसमें पाया गया कि—
- 15.1% बच्चों ने जीवन में कम से कम एक बार कोई न कोई नशीला पदार्थ आज़माया है।
- 10.3% ने पिछले साल, और 7.2% ने पिछले महीने नशे का इस्तेमाल किया।
सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले पदार्थों में तंबाकू (4%) और शराब (3.8%) सबसे आगे हैं। इसके बाद ओपियोइड दवाएं (2.8%), कैनबिस (2%) और इनहेलेंट्स (1.9%) आते हैं। छात्रों में बिना पर्ची वाली दवाओं की बढ़ती उपलब्धता शोधकर्ताओं के लिए बड़ी चिंता का कारण बनी हुई है।
सर्वे के अनुसार, उम्र बढ़ने के साथ नशे का उपयोग भी बढ़ता है — कक्षा 11 और 12 के छात्रों में यह दर कक्षा 8 की तुलना में लगभग दोगुनी पाई गई। लड़कों में तंबाकू और कैनबिस का उपयोग अधिक है, जबकि लड़कियों में इनहेलेंट्स और ओपियोइड दवाओं का उपयोग अपेक्षाकृत अधिक पाया गया।
विशेषज्ञ बताते हैं कि पीयर प्रेशर, घर का माहौल, पारिवारिक कलह, तनाव, और माता-पिता की अनुपस्थिति जैसे कारक बच्चों को जल्दी नशे की ओर धकेलते हैं। सर्वे में शामिल हर चौथा छात्र पारिवारिक तनाव का सामना कर रहा था, जो जोखिम को और बढ़ाता है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि शुरुआती उम्र में नशा शुरू करना भविष्य में लंबे समय तक लत का कारण बन सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि बच्चों की नशे की शुरुआत को सिर्फ एक साल भी आगे बढ़ा दिया जाए, तो उनमें लत विकसित होने का जोखिम काफी कम हो जाता है।
इसलिए विशेषज्ञ स्कूलों में ड्रग अवेयरनेस प्रोग्राम, काउंसलिंग, मानसिक स्वास्थ्य समर्थन, और माता-पिता के साथ नियमित संवाद को मजबूत करने पर जोर दे रहे हैं। उनका कहना है कि यह समस्या सिर्फ एक स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि एक सामाजिक चुनौती भी बनती जा रही है।
भारत में छात्रों में नशे की शुरुआत 12 साल जैसी कम उम्र में होना एक चिंताजनक संकेत है। समय पर रोक, परिवार का सहयोग, और स्कूलों में जागरूकता — इन सबकी जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है।


